बॉलीवुड सेलिब्रिटी की मौत पर मीडिया की मनगढ़ंत कहानियां
आज मैं ना कोई फ़िल्मी किस्सा लाया हूँ और ना ही किसी करिश्माई प्रदर्शन की कहानी। आज मैं आपसे कुछ सवाल करने आया हूँ। आज मैं आपके सामने कुछ बातें रखने आया हूँ। वो सवाल और बातें जिन्हें हम कई सालों से नज़रअंदाज़ करते आ-रहे है। मैं बात करने आया हूँ एक ऐसी सामाजिक बीमारी की। जो, टी.आर.पी. के लिये इंसानियत का गला घोटने को तैयार है।
वैसे तो भारत के पत्रकार और यहाँ की पत्रकारिता पर आये दिन कोई-ना-कोई मीम बनती रहती है। किसी प्राइम टाइम शो में बेसिर-पैर की बहस होती रहती है। लेकिन, हाल के कुछ सालों की घटनाओं को देखें। तो, हमारे यहाँ के पत्रकार, पत्रकार कम ‘गिद्ध’ ज़्यादा मालूम होते हैं। इस वाक्य को मैं आगे खुले शब्दों में कुछ उदाहरण देकर साबित करूँगा।
दोस्तों,”मौत को अक्सर ज़िन्दगी का एक पहलू माना जाता है। लेकिन, मौत हर ज़िंदा चीज़ की आख़िरी मंज़िल है”। 2 सितम्बर को आयी एक ख़बर ने इस मनहूस वाक्य को एक बार फिर सही साबित किया। ख़बर थी कि एक्टर सिद्धार्थ शुक्ला की हार्ट अटैक के चलते मौत हो गयी है। टी.वी. और फ़िल्मों से जुड़े हर इंसान के लिए ये ख़बर सदमा थी।
क्योंकि, सिर्फ़ 40 साल के सिद्धार्थ शुक्ला का फ़िल्मी सफर लाखों नौजवानों के लिये मिसाल है। सिद्धार्थ अपनी फ़िटनेस के लिये जो मेहनत करते थे। वो उनके बहुत से फ़ैन्स के लिये इंस्पिरेशन थी। मगर, आज सिद्धार्थ की मुस्कान बस एक याद बनकर रह गयी है। आज सिद्धार्थ शुक्ला की आवाज़ बहुत से कानों में गूँज रही है।
]लेकिन, इस शोक के वक़्त में भी समाज का एक हिस्सा ये मौका भुनाने में लगा है। उस हिस्से के लिये किसी की मौत के ग़म से ज़्यादा ज़रूरी है, टी.आर.पी. में इज़ाफ़ा होना। मुझे अफ़सोस है ये कहते हुए कि वो हिस्सा और कोई नही, हमारे प्रतिष्ठित मीडिया हाउसेज़ हैं।
दोस्तों, आज जहाँ एकतरफ़ सिद्धार्थ के चाहने वाले ग़म में डूबे हैं। वहीं न्यूज़ एजेंसीज़ का ध्यान है कहानियाँ गढ़ने में। एक मीडिया चैनल का कहना है कि ‘सिद्धार्थ की मौत की वजह हार्ट अटैक नहीं झगड़ा है’। तो दूसरे मीडिया हाउस का कहना है कि ‘उनके खाने में कुछ मिला हुआ था’। इस गंभीर और नाज़ुक मुद्दे पर भी, ख़ुद को भारत का सर्वश्रेष्ठ न्यूज़ चैनल बताने वाले लगभग हर चैनल की अपनी अलग कहानी है।
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किसी का कहना है कि ‘सिद्धार्थ के आख़िरी वक़्त में शहनाज़ उनके साथ थीं’। तो कोई कह रहा है कि ‘वो कमरे में बेसुध मिले थे’। इतना ही नहीं टी.आर.पी. के भूखे ये न्यूज़ चैनल ‘शो टाइटल’ रखते वक़्त भी अपनी मर्यादा लाँघ जाते हैं। एक न्यूज़ चैनल ने लिखा “सिड तुम्हें इतनी जल्दी क्यों थी”, तो दूसरे ने लिखा “ये क्या हुआ…. कैसे हुआ” और अगले ने लिखा “सिद्धार्थ शुक्ला! कहाँ तुम चले गये”।
ये उन न्यूज़ चैनल्स के टाइटल हैं जो ख़ुद को सरकार गिराने और बनाने की ताक़त रखनेवाला कहते हैं। इन न्यूज़ चैनल्स से जुड़े ग्राउंड रिपोर्टर और एंकर तो एक अलग ही दर्जे के हैं। एक मशहूर चैनल की रिपोर्टर सिद्धार्थ शुक्ला के अन्तिम संस्कार में आये शख्स से पूछती हैं कि “अगर सिद्धार्थ ज़िंदा होते।तो, आप उन्हें किस रोल में देखना चाहते”।
जबकि, सबसे तेज़ कहे जाने वाले न्यूज़ चैनल की एंकर ने अपने साथी रिपोर्टर से पूछा कि “सिद्धार्थ की बॉडी को ‘लास्ट राइड’ पर कब ले जाया जायेगा”। इन दोनों सवालों से साफ़ है कि वर्तमान में भारतीय मीडिया अपने शब्दों को लेकर कितनी ज़िम्मेदार है।
दोस्तों, आज के न्यूज़ चैनलों की सोच देखकर ऐसा लगता है कि, मानो ये इंतज़ार करते हैं किसी बड़ी हस्ती के दुनिया से जाने का। जिसका सबसे दर्दनाक मंज़र पिछले साल देखने को मिला था। जब सुशांत सिंह राजपूत की मौत के बाद न्यूज़ चैनल उनके घरवालों से प्रतिक्रिया लेने पहुँच गये थे। उसके बाद इन मीडिया होउसेज़ ने टी.आर.पी. के लिये क्या-क्या किया ये किसी से छुपा नहीं है।
उस दौरान एक न्यूज़ चैनल ने सुशांत की आत्मा से बात करने की बात कही। तो, दूसरे ने अपने शो के लिये सुशांत के डुप्लीकेट की मदद से उनकी मौत का नाट्य रूपांतरण तक कर दिया। आज सिद्धार्थ शुक्ला की मौत के बाद हुई उनकी पोस्टमार्टम रिपोर्ट में भी मौत की वजह साफ़ नहीं है। अब सवाल ये है कि क्या सिद्धार्थ की मौत का भी सुशांत की मौत की तरह तमाशा बनेगा?
इस सवाल का जवाब तो आने वाला वक़्त देगा। लेकिन, इतना तय है कि अगर एक दर्शक के तौर पर हम अपनी ज़िम्मेदारी समझें तो ये चैनल कुछ सोचने पर मजबूर होंगे। वर्ना जैसा चल रहा है। उस में सिर्फ़ न्यूज़ चैनलों का ही फ़ायदा है।
ऐसा नहीं है कि न्यूज़ चैनलों का ये शर्मनाक रवैय्या सिर्फ़ सुशांत और सिद्धार्थ की मौत पर ही रहा। इन न्यूज़ चैनलों ने इरफ़ान खान की मौत के बाद मौलवी से बहस की वीडियो चलाई थी। तो, ऋषि कपूर की मौत के बाद उनके जवानी के दिनों की बहुत से घटनाये बेबाकी से बतायी थी। इतना ही नहीं! आज आलम ये है कि जब अफ़ग़ानिस्तान से अपना घर-बार छोड़ एक हिन्दुस्तानी घर लौटा।
तो, उससे सवाल किये गये कि “वहाँ हालात कैसे हैं?”, “क्या वापस जाना चाहते हो?” जब वो शख्स रोने लगा, तो उस रोते हुए आदमी को अपने चैनल का चेहरा बना लिया और कई दिनों तक लगभग सभी न्यूज़ चैनल टी.आर.पी. बढ़ाते रहे।
दोस्तों, वर्तमान में टेलिविज़न न्यूज़ चैनलों की हालत ये है कि कोई भी चैनल किसी भी तरह की क़ामयाब स्टोरी रन करे। तो, सब भेड़ चाल चलते हुए सेम स्टोरी अपने चैनल पर भी चलाने लगते हैं। ये चेक भी नहीं करते, कि विडीयो या फ़ोटो फ़ेक है या रियल। इन्हें तो बस मतलब है टी.आर. पी. से, बिल्कुल वैसे ही जैसे किसी जानवर की मौत के बाद गिद्ध को माँस से मतलब होता है।
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